Wednesday 20 November 2013

Achha Lagta Hai...

जब आसमान धुला- धुला सा हुआ करता था
जब नदियों का पानी निथरा- निथरा रहता था
जब हवा में असलियत का ज़हर नहीं घुला था
जब सच्चे थे हम तुम अल्हड़ लड़कपन में
आज कल वो दिन बहुत- बहुत याद आते हैं 

याद है गली के नुक्कड़ पे वो हर शाम, ...
गुब्बारे वाला अपनी साइकल पर बंधे सिलिण्डर से
हमारी फरमाईश पे गुब्बारा फुला कर
बाँध देता था कलाई पर ...
और हम गुब्बारे से भी ज्यादा इतरा जाते थे

कभी हाथ से छूट कर उसका छत पे जा लगना
या पंखे से उलझ कर फूट जाना तो बुरा लगता था
पर यकायक खुले में उसकी डोर
जब हाथ से फिसल जाती थी
और वो उठने लगता था
एक एक आसमान के पार

तब जाने क्या क्या कैसा कैसा लगता था

अक्सर सोचता हूँ काश कभी हम मिल पाते
फिर से बैठते
गए वक़्त की ठंडी हो चुकी धूप किनारे
घंटों घंटों अपने अपने दायरों से गपियाते

लगभग बिना कोई आवाज़ किये
हमारी चटखारी बातों पे
चिकनी चुपड़ी रोटियों की तहें लगा कर
फिर चुपचाप रसोई में लौट जाती माँ

और, कोने में अपनी गद्दी सम्हाले बैठे
पप्पा जी की चुरुट से
उठते जाते गोल गोल धुएं के बवंडर
उनके रहस्यमय एकांगी एकाकी चुप्पी भरे
कोने के एकांत को और गहराते हुए

अब हम - तुम ज़रा कम कम मिलते हैं

अच्छा लगता है

मुद्दतों में कभी कभी का मिलना
और हर दफे उम्र की कलफ
और मेहँदी का फीका होते देखना

अब भी जाने क्या क्या कैसा कैसा लगता है

किन्हीं सिरों का हाथ से छूट छूट जाना
और हौंसलों, इरादों, उम्मीदों के गुब्बारों का
एक एक कर आसमानों को लांघते जाना...Ravindra Arora
जब आसमान धुला- धुला सा हुआ करता था जब नदियों का पानी निथरा- निथरा रहता था जब हवा में असलियत का ज़हर नहीं घुला था जब सच्चे थे हम तुम अल्हड़ लड़कपन म...

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