एक मोहब्बत की साल गिरह पर...Ek Mohabbat ki saalgirah par...Ravindra Arora
कोई ऐसा ही अज़ीयत से भरा लम्हा था मैंने जिस पल में तुम्हें नाम से पहचाना था झाँक कर आँखों में मदमाती उम्मीदों का हिसाब बीते जन्मों की बक़ाया सी रकम जाना था
मेरी तुमसे जो वफायें हैं उन्हें क्या मालूम हम महज़ पोर हैं उंगली के इशारों की तरह जिनके धारों में शुआएँ हैं इनायत उसकी मेरी हस्ती से जो वाबस्ता हैं अब बस तुम तक
मैंने जाना है तुम्हें बहती इक नदी की तरह जिसके पानी में पिघल आयी हो उसकी रेहमत जो मुक़द्दस सी किसी बर्फ का अनजान यति अपने यक्षों के निवालों को नमी फरमाये
आ कि एक अहद करें बन के उसी के बन्दे उसके बन्दों के ही पैरों के तले खाक़ बनें आज तक पाया है बस पाया है जो पाया है आज इस लम्हे से बस देने की शुरुआत करें ...Ravindra Arora
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